बुधवार, 18 जून 2014

अरसा बीता..



लम्हा,लम्हा जोड़ इक दिन बना,
दिन से दिन जुडा तो हफ्ता,
और फिर कभी एक माह बना,
माह जोड़,जोड़ साल बना..
समय ऐसेही बरसों बीता,
तब जाके उसे जीवन नाम दिया..
जब हमने  पीछे मुडके देखा,
कुछ ना रहा,कुछ ना दिखा..
किसे पुकारें ,कौन है अपना,
बस एक सूना-सा रास्ता दिखा...
मुझको किसने कब था थामा,
छोड़ के उसे तो अरसा बीता..
इन राहों से जो  गुज़रा,
वो राही कब वापस लौटा?

 

कुछ  कपडे  के  तुकडे ,कुछ  जल  रंग  और  कुछ  कढ़ाई .. इन्हीं के संयोजन से ये भित्ती चित्र बनाया है.


गुरुवार, 17 अप्रैल 2014

नज़रे इनायत नहीं..



पार्श्वभूमी  बनी  है , घरमे पड़े चंद रेशम के टुकड़ों से..किसी का लहंगा,तो किसी का कुर्ता..यहाँ  बने है जीवन साथी..हाथ से काता गया सूत..चंद, धागे, कुछ डोरियाँ और कढ़ाई..इसे देख एक रचना मनमे लहराई..

एक ही मौसम है,बरसों यहाँ पे,
आखरी बार झडे,पत्ते इस पेड़ के,
 बसंत आया नही उस पे,पलट के,
हिल हिल के करतीं हैं, डालें इशारे...
एक ही मौसम है,बरसों यहाँ पे..

बहारों की  नज़रे इनायत नही,
पंछीयों को इस पेड़ की ज़रुरत नही,
कोई राहगीर अब यहाँ रुकता नही,
के दरख़्त अब छाया देता नही...
बहारों की नज़रे इनायत नहीं..

रविवार, 30 मार्च 2014

मुल्क खामोश क्यों है?

दिलों में खुशी की कोंपल नहीं,
फिर ये मौसमे बहार क्यों है?
सूखे पड़े हैं पेड़ यहाँ,
इन्हें परिंदों का इंतज़ार क्यों है?
गुलों में शहद की बूँद तक नहीं,
इन्हें भौरों का इंतज़ार क्यों है?
दूरदूर तक दर्याये रेत है,
मुसाफिर तुझे पानी की तलाश क्यों है?
बेहरोंकी इस बेशर्म बस्तीमे ,
हिदायतों का शोर क्यों है?
कहते हैं,अमन-औ चैन का मुल्क है,
यहाँ दनादन बंदूक की आवाज़ क्यों है?
औरतको  देवी कहते हैं इस देश में,
सरेआम इसकी अस्मत  लुटती  है,
मुल्क फिर भी खामोश क्यों है?



मंगलवार, 4 फ़रवरी 2014

वो घर बुलाता है…

ये fusion वाली रचना ख़ास अरविन्द मिश्रा जी के अनुरोध पे!

जब ,जब पुरानी तसवीरें,

कुछ याँदें ताज़ा करती हैं ,

हँसते ,हँसते भी मेरी

आँखें भर आती हैं!



वो गाँव निगाहोंमे बसता है

फिर सबकुछ ओझल होता है,

घर बचपन का मुझे बुलाता है,

जिसका पिछला दरवाज़ा

खालिहानोमें खुलता था ,

हमेशा खुलाही रहता था!



वो पेड़ नीमका आँगन मे,

जिसपे झूला पड़ता था!

सपनोंमे शहज़ादी आती थी ,

माँ जो कहानी सुनाती थी!



वो घर जो अब "वो घर"नही,

अब भी ख्वाबोमे आता है

बिलकुल वैसाही दिखता है,

जैसा कि, वो अब नही!



लकड़ी का चूल्हाभी दिखता है,

दिलसे धुआँसा उठता है,

चूल्हा तो ठंडा पड़ गया

सीना धीरे धीरे सुलगता है!



बरसती बदरीको मै

बंद खिड्कीसे देखती हूँ

भीगनेसे बचती हूँ

"भिगो मत"कहेनेवाले

कोयीभी मेरे पास नही

तो भीगनेभी मज़ाभी नही...



जब दिन अँधेरे होते हैं

मै रौशन दान जलाती हूँ

अँधेरेसे कतराती हूँ

पास मेरे वो गोदी नही

जहाँ मै सिर छुपा लूँ

वो हाथभी पास नही

जो बालोंपे फिरता था

डरको दूर भगाता था...



खुशबू आती है अब भी,

जब पुराने कपड़ों मे पडी

सूखी मोलश्री मिल जाती

हर सूनीसी दोपहरमे

मेरी साँसों में भर जाती,

कितना याद दिला जाती ...



नन्ही लडकी सामने आती

जिसे आरज़ू थी बडे होनेके

जब दिन छोटे लगते थे,

जब परछाई लम्बी होती थी...





बातेँ पुरानी होकेभी,

लगती हैं कल ही की

जब होठोंपे मुस्कान खिलती है

जब आँखें रिमझिम झरती हैं

जो खो गया ,ढूँढे नही मिलेगा,

बात पतेकी मुझ ही से कहती हैं ....


छोट बच्चे के नज़रिए से ये भित्ती चित्र बनाया था. खादी सिल्क की पार्श्वभूमी पे पहले थोडा पेंट कर लिया और ऊपर से कढ़ाई की है.
कभी,कभी बचपन बहुत याद आता है...सपने आते हैं,जिन में मै स्वयं को एक बच्ची देखती हूँ...बचपन वाला घर दिखता है....बचपन के दोस्त और दादा दादी दिखते हैं...आँखें खुलने पे वो बेसाख्ता बहने लगती हैं...


वो घर बुलाता है…

गुरुवार, 24 अक्तूबर 2013

पलक भी ना झपकी

जिस रात की,चाहते थे, सेहर ही  ना हो,
पलक भी ना झपकी ,बसर हो गयी! 

उस  की पैरहन पे सितारे जड़े थे,
नज़र कैसे  उतारते ,सुबह हो गयी!

झूम के खिली थी रात की रानी,
साँस भी ना ली ,खुशबू फना  हो गयी...

जुगनू ही जुगनू,क्या नज़ारे थे,तभी,
निकल  आया  सूरज,यामिनी छल   गयी!

गुरुवार, 12 सितंबर 2013

दुल्हनिया!


ना,ना,न छूना घूंघटा,
सहमी सिमटी है दुल्हनिया,
अभी छलके हैं इस के नैना,
यादों में है बाबुल अपना!

आँखों से कजरा बह गया,
बालों में गजरा मुरझाया,
हैं हिनाभरी हथेलियाँ,
याद आ रही हैं सहेलियाँ...

दादी औ माँ में उलझा है ज़ेहन,
उसमे बसा है नैहरका आँगन,
धूप में बरसती सावनी फुहार,
फूल बरसाता हारसिंगार...

गीली मिट्टी पे मोलश्री के फूल,
नीम के तिनकों में पिरोये हार,
मेलों के तोहफे,बहनका दुलार,
अभी यही है,इसका सिंगार!

सिंगार ,हिना,सावन,नैहर, आँगन।

गुरुवार, 5 सितंबर 2013

वो वक़्त भी कैसा था