सोमवार, 31 मई 2010

हाले चमन..

नुक्कड़,नुक्कड़ गधे  खड़े हैं,
आगे पूजा के फूल हैं,
गलों में उनके हार हैं,
नन्हीं कलियाँ मरती हैं,
इनकी उम्र दराज़ है,
बुतों से बने  बगीचे हैं,
फूल औ,परिंदे कहाँ  हैं?
हरसूँ झुलसाती धूप है,
छाया का निशाँ नही है,
हाले चमन क्या होगा?

गुरुवार, 27 मई 2010

दादीमाँ का नैहर..

मेरी उम्र कुछ तीन चार साल की रही होगी, दादीमाँ मुझे खम्बात ले गयीं थीं. यह स्थल गुजरात में है.एक ज़माने में मशहूर और व्यस्त बन्दर गाह था.  यहीं उनका नैहर था.  हालाँ की,मै  बहुत छोटी थी, लेकिन वह हवेली नुमा मकान और उसका  परिसर मेरे दिमाग में एक तसवीर की तरह बस गया.

उस हवेली का प्रवेश द्वार खूब नक्काशी दार लकड़ी और पीतल का बना हुआ था. वहाँ से अन्दर प्रवेश करतेही ,ईंट की दीवारों से घिरा हुआ एक बड़ा-सा बगीचा था. उन दीवारों में जगह,जगह गोल झरोखे बने हुए थे, जहाँ से बाहर  का मंज़र  दिखाई देता.
बगीचे की आखरी छोर पे बना दरवाज़ा  , एक बड़े-से  सहन में खुलता. यहाँ पे नीचे फर्श लगाया हुआ था. बीछ में तीन बड़े गद्दे डाले हुए झूले थे. इस सहन के तीनों ओर दो मंजिला  मकान था. आगे और पीछे चौड़े बरामदेसे घिरा हुआ.

सहन के ठीक मध्य में, हवेली में प्रवेश करतेही, बहुत बड़ा दालान था. यहाँ भारतीय  तरीके की बैठक सजी हुई रहती. अन्य साजों सामाँ नक्काशीदार लकड़ी और पीतल से बना हुआ था. दीवारों पे कहीं कहीं बड़े,बड़े आईने लगे थे. इस दालान के बाद और दो दालान थे. दूसरे दालान में अक्सर जो मेहमान घरमे रुकते थे, उनके साथ परिवार के लोग बाग बैठा करते.पहला दालान  दिनमे आने जाने वाले मेहमानों के लिए था. तीसरे दालान में केवल परिवार के सदस्य मिल बैठते. महिलाओं के हाथ में अक्सर कुछ हुनर का काम जारी रहता.

इस हवेली से समंदर का किनारा काफ़ी पास में था. सुबह शाम मुझे वहाँ घुमाने ले जाया जाता था.  उन्हीं दिनों ,वहाँ मौजूद ,पूरे परिवार की एक तसवीर खींची गयी थी.

इस बात को अरसा हो गया. वहाँ दोबारा जाने का मौक़ा मुझे नही  मिला. एक दिन दादीमाँ के साथ पुरानी तस्वीरें देख रही थी,तो वह तस्वीरभी दिखी. सहसा मैंने दादीमाँ से अपने  ज़ेहन में बसे उस मकान का वर्णन किया और पूछा, की, क्या वह मकान वाकई ऐसा था, जैसाकी मुझे याद था?
दादीमाँ हैरत से बोलीं:" हाँ ! बिलकुल ऐसा ही था...! मै दंग हूँ,की,इतनी बारीकियाँ तुझे याद हैं...!"

फिर बरसों गुज़रे. मेरा ब्याह हो गया...मेरे दादा जी के मृत्यु पश्च्यात दादीमाँ  एकबार मेरे घर आयीं. मेरी छोटी  बहन भी उसी शहर में थी. वह भी उन्हें मिलने आयी हुई थी. तब सपनों को लेके कुछ बात छिड़ी.
मैंने कहा :" पता नही, क्या बात है,लेकिन आज तलक सपनों में मै गर कोई घर देखती हूँ तो वह मेरे नैहर का ही होता है..और रसोई भी वही पुरानी लकड़ी के चूल्हे  वाली...मेरे ससुरालवाले भी मुझे उसी घर में नज़र आते हैं..!"
बहन बोल पडी:" कमाल है ! यही मेरे साथ होता है..मुझे वही अपना बचपन का घर दिखता है...!"
इसपर दादीमाँ बोल उठीं:" मुझे शादी के बाद इस मकान में रहते ७२ साल गुज़र गए, पर मुझे आज भी वही खम्बात का मकान, मेरे घर की तौरसे सपनों में नज़र आता है..!"

सहज मेरे मन में ख़याल आया...लड़कियों को कहा जाता है,की, ब्याह के बाद ससुराल का घर ही तुम्हारा घर है...पर जिस मकान में पले बढ़ें, वहाँ की जड़े कितनी गहरी होती हैं, वही मकान अपना घर लगता है,सपनों में सही...!

ऊपर बना भित्ती चित्र उस खम्बात के घर का बगीचा है,जो मुझे याद रह गया..कुछ पेंटिंग, कुछ कढाई और कुछ क्रोशिया..इन सबके ताल मेल से कुछ दिनों पूर्व मैंने बनाया..काश! दादीमाँ के रहते बनाया होता!




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मंगलवार, 18 मई 2010

दीवारें बोलती नही..



खादी सिल्क से दीवारें तथा रास्ता बनाया है..क्रोशिये की बेलें हैं..और हाथसे काढ़े हैं कुछ फूल-पौधे..बगीचे मे रखा statue plaster ऑफ़ Paris से बनाया हुआ है..

 सुना ,दीवारों  के  होते  हैं  कान ,
काश  होती  आँखें और लब!
मै इनसे गुफ्तगू   करती,
खामोशियाँ गूंजती हैं इतनी,
किससे बोलूँ? कोई है ही  नही..

आयेंगे हम लौट के,कहनेवाले,
बरसों गुज़र गए , लौटे नही ,
जिनके लिए उम्रभर मसरूफ़ रही,
वो हैं  मशगूल जीवन में अपनेही,
यहाँ से उठे डेरे,फिर बसे नही...

सजी बगिया को ,रहता है  फिरभी,
इंतज़ार क़दमों की आहटों का,
पर  कोई राह इधर मुडती नही ,
पंखे की खटखट,टिकटिक घड़ी की,
अब बरदाश्त मुझसे होती नही...

शनिवार, 15 मई 2010

दीवारें बोलती नही..


खादी सिल्क से दीवारें तथा रास्ता बनाया है..क्रोशिये की बेलें हैं..और हाथसे काढ़े हैं कुछ फूल-पौधे..बगीचे मे रखा statue plaster ऑफ़ Paris से बनाया हुआ है..

 सुना ,दीवारों  के  होते  हैं  कान ,
काश  होती  आँखें और लब!
मै इनसे गुफ्तगू   करती,
खामोशियाँ गूंजती हैं इतनी,
किससे बोलूँ? कोई है ही  नही..

आयेंगे हम लौट के,कहनेवाले,
बरसों गुज़र गए , लौटे नही ,
जिनके लिए उम्रभर मसरूफ़ रही,
वो हैं  मशगूल जीवन में अपनेही,
यहाँ से उठे डेरे,फिर बसे नही...

सजी बगिया को ,रहता है  फिरभी,
इंतज़ार क़दमों की आहटों का,
पर  कोई राह इधर मुडती नही ,
पंखे की खटखट,टिकटिक घड़ी की,
अब बरदाश्त मुझसे होती नही...

बुधवार, 12 मई 2010

नज़रे इनायत नही...

पार्श्वभूमी  बनी  है , घरमे पड़े चंद रेशम के टुकड़ों से..किसी का लहंगा,तो किसी का कुर्ता..यहाँ  बने है जीवन साथी..हाथ से काता गया सूत..चंद, धागे, कुछ डोरियाँ और कढ़ाई..इसे देख एक रचना मनमे लहराई..

एक ही मौसम है,बरसों यहाँ पे,
आखरी बार झडे,पत्ते इस पेड़ के,
 बसंत आया नही उस पे,पलट के,
हिल हिल के करतीं हैं, डालें इशारे...
एक ही मौसम है,बरसों यहाँ पे..

बहारों की  नज़रे इनायत नही,
पंछीयों को इस पेड़ की ज़रुरत नही,
कोई राहगीर अब यहाँ रुकता नही,
के दरख़्त अब छाया देता नही...
बहारों की नज़रे इनायत नहीं..

( मुझ से एक सवाल कई बार किया जाता है..मेरी रचनाओं में इतना दर्द क्यों है? मै खुद को कवी तो कह नही सकती...लेकिन इस सच्चाई से मुकर भी नही सकती,की,मेरी पद्य रचनाओं में ,या तो मेरा अपना,या मेरे अतराफ़ का दर्द सिमट आता है..गद्य रचनाओं में ज़रूर हलके फुल्के लमहात सिमटे हैं..जो असली जीवन से ही चुने हुए हैं...)

शनिवार, 8 मई 2010

माताओं का यह भी एक रूप.

ज़िन्दगी का  जो अनुभव आपसे साझा करने जा रही,हूँ, कभी मेरे ज़ेहनसे मिटेगा नही..लेकिन कई बार , रात की तन्हाई में, आँख खुल जाती है,और कुछ  नन्हें ,मासूम-से  चेहरे  मस्तिष्क में  घूम जाते   हैं.....दिल तिलमिला उठता है..नींद उड़ जाती है ...अपनी बेबसी  इस क़दर शिद्दत से महसूस होती है, की मै बेसाख्ता उठके खड़ी हो जाती हूँ.. घरमे चक्कर काटने लगती हूँ..साँसें अपने आप सिसकियों में तब्दील हो जाती हैं..

कुछ साल पहले की घटना..महाराष्ट्र का एक जाना माना शहर, जहाँ मुझे चंद हफ्ते किसी कामसे रुकना था..एक मित्र परिवार के घर मै रुकी थी..
उन्हीं के घर एक महिला आहार तग्य से मेरा परिचय हुआ..वो उस शहर के सिविल अस्पताल में कार्यरत थी..उन दिनों कुपोषित आदिवासी बच्चे काफ़ी चर्चा में थे..अखबारों में आए दिन खबरें छपती..राज्य सरकार निशाने पे थी..कई आदिवासी बच्चे सरकारी अस्पताल में भरती होते रहते थे..इस महिला पे काम का काफ़ी भार था..बातचीत के दौरान मैंने पूछा:" क्या मेरी कुछ भी सहायता हो सकती है? मेरे पास समय तो काफ़ी है.."
उसने कहा:" ख़याल अच्छा है ! हाँ..सहायता हो सकती है..जिन,जिन wards में ऐसे बच्चे भरती किये जाते हैं,वहाँ निगरानी रखना ज़रूरी होता है..यह देखना की, बच्चों को समय से खान पान दिया जाता है या नही..कई बार खाना कुपोषित बच्चे को नहीं दिया जाता..."
मै:" क्या मतलब? कहाँ जाता है?"
महिला:" वही तो..दिन में तीन बार आहार अस्पताल की रसोइसे ward में जाता है..फिरभी कुपोषित बच्चे की हालत में सुधार नहीं होता..दो या तीन दिनों के भीतर बच्चे चलने खेलने लगने चाहियें..एक सप्ताह से ज़्यादा अस्पताल में नही रख सकते..अन्य बच्चे क़तार में होते हैं..बहुत भीड़ है..गर तुम इस बात की निगहबानी कर सको तो बहुत अच्छा होगा.."
मै:" मै तो कल सुबह ही हाज़िर हो जाउँगी...मै कुछ कर पाऊं यह मेरे लिए खुशी का अवसर होगा!"
महिला:" तो ठीक है...तुम गर सुबह ८ बजे आ जाओ तो कमसे काम उस वक़्त जो आहार दिया जाता है,उसकी निगरानी कर सकती हो...दोपहर एक बजे और शाम ७ बजे..इनको ४ बजे दूध  और फल भी दिया जाता है..वो बाद में तय करते हैं.."

मै अस्पताल पहुँच गयी..आहार आया..दूध और मीठा दलिया..बच्चों के साथ उनकी माएँ थीं .. उस भरती हुए बच्चे के ठीक ठाक भाई बहन भी उस वक़्त आ गए..मेरा पहला ही दिन था..अस्पताल का कर्मचारी वर्ग भी कितनी निगरानी रख सकता? अचानक एक अजीब-सा संयोग नज़र आया..यह मेरा भ्रम था? के केवल उस दिन जितना इत्तेफ़ाक़? बिस्तर पे पडी सारी लड़कियाँ ही थीं...! और आहार के समय अन्दर घुस आने वाले लड़के ही थे ! भाई बहन नहीं..केवल भाई! इस हुजूम में लड़कों और उनकी माओं ने तक झपट लिया आहार...!

लड़कियाँ तो केवल खाने को ताक रहीं थीं...आस भरी निगाहों से..सभी को ड्रिप लगाया हुआ था..कुछ लड़कियाँ खाना देख, कमज़ोर-सी आवाज़ में रोने लगीं..बिना जकड़े हाथ से अन्न की ओर इशारे करती हुईं...! हे भगवान् ! मै यह क्या देख रही थी? पल दो पल मुझे लगा, जैसे मै गश खाके गिर पडूँगी..पैर लड़खड़ाने लगे..अपने आपको सम्हालते हुए मैंने ऊंची  आवाज़ में टोकना शुरू किया....कुछेक पल ,केवल हैरत से, वहाँ थोड़ी खामोशी हुई..!

वहाँ से गुज़रते एक वार्ड बॉय को मैंने सहायता के लिए बुलाया...वो भी चकित-सा होके,मेरे करीब आया..समझ नही पाया की,मै इतनी उत्तेजित  क्यों हूँ...उसके लिए तो यह रोज़ का नज़ारा था!
जब बात उसके समझमे आयी तो बोला:" अरे मैडम..आप काहे इतना परेशान हो रही हैं? अपना काम था, खाना पकड़ा देना..फिर उनके माँ बाप जाने..आप कहाँ कहाँ  देखेंगी? और भी वार्ड हैं..कोरिडार में लड़कियाँ  पडी  हैं..यहाँ ऐसाही चलता है..आप यहाँ देख भी लेंगी तो इनके घरमे देखने जाएँगी? इनको सरकार की तरफ से आटा, दाल चावल भी मिलता है..इधर बच्चा  भरती होता है तो  माँ-बाप को रोज़न्दारी भी मिलती है..! यह हफ्ता दस  दिन लडकी को घर ले जाते हैं..मरने को आता है तो फिर इधर भरती कर देते हैं.. मै जाता  है..x-ray के लिए मरीज को ले जाना है..."

इतना सब कहते हुए उसने चंद माओं की ओर रुख किया...शायद मेरी तसल्ली के खातिर .....और जोर से हडकाया :" सुना क्या? क्या बोलती यह मैडम? चलो दूध दलिया लडकी लोग को खिलाओ..!"
एक औरत बोली:" अरे चुप कर...जा अपना काम कर..क्या कर लेगी यह मैडम..? दिन रात नजर रखेगी क्या?"

मैंने आगे बढ़के उसके सामने से दूध और दलिया छीन लिया..पलंग पे पड़ी,कमज़ोर-सी लडकी के पास मै खड़ी हो गयी...एक चम्मच उसके होटोंको लगाया..वो डर गयी थी..अपनी माँ की ओर मानो इजाज़त के लिए देखा..वो औरत अपनी बेटी को चिल्लाके कहने लगी:" अरे तेरा पेट और फूल जायेगा! ये खाएगी तो मर जायेगी.."

तब तक बच्ची को मुझपे कुछ विश्वास हुआ..उसने मूह खोला..पता नही कब इसके मुह में किसी ने कौर दिया होगा? मुह में मीठा स्वाद आतेही उसकी आँखों में हलकी-सी चमक आयी..मुझे देख हल्का-सा मुस्काई और फिर से अपना मुह खोल दिया..अबतक मैंने अपने आँसूं मुश्किल से रोक रखे थे...अब मुझे सिसकियाँ आने लगीं..मैंने अन्य लड़कियों और उनकी माताओं के तरफ नज़र घुमाई..सभी चुपचाप मरीज़ को खिलाने लगीं थी...
मै अपना काम धाम सब भूल गयी..मेरा पूरा दिन वहीँ गुज़रा..चंद पाठशालाओं से संपर्क कर मैंने कुछ स्वयं सेवक जुटाए..

तीसरे दिन मै वहाँ के ज़च्चा  बच्चा वार्ड में गयी..एक और दिल को तोड़ देनेवाली घटना की साक्षी बन गयी..एक औरत को जुडवा बच्चे हुए थे...एक लड़की एक लड़का..वो औरत केवल अपने लड़के को स्तन पान करा रही थी...लडकी को अस्पताल से मिलने वाला बोतल का दूध पिलाया जा रहा था..माओं का यह रूप मैंने पहली बार देखा था..!

जिन,जिन लड़कियों को मैंने अपने हाथों से खाना खिलाया,उनके मासूम चेहरे मै उम्रभर  नही भुला पाऊँगी...उनकी कहीँ कोई सुनवाई नही थी..आँखें तो मेरी इस वक़्त भी भर भर आ रहीं हैं..

शुक्रवार, 7 मई 2010

ये मौसम सुहाने .

 सावन  के  झरने ,
बहारों के साए,
पतझड़  के  पत्ते
मिले हैं आके यहाँ पे..

हम रहे न रहें,
किया है क़ैद इन्हें
तुम्हारे लिए,
ये अब जा न पायें..

भूल जाना दर्द सारे,
जो गर मैंने दिए,
साथ रखना अपने,
ये मौसम सुहाने..

गुरुवार, 6 मई 2010

एक धमाका ऐसा भी....

उन दिनों हम लोग  विदर्भ में थे. मैंने सुन रखा था,की, गढ़चिरौली के आदिवासी चटाई बुनते हैं.एक गैर सरकारी संस्था को मै इस बारेमे वाकिफ़ कराना  चाह रही थी.मनमे था की, गर उन्हें lamp शेड, पेन होल्डर, टेबल mats तथा अन्य बहुत-सी चीज़ों के डिजाईन दी जाये तो उन्हें बड़े शहरों में होनेवाली प्रदर्शनियों में रखा जा सके. शायद वो लोग अपने हुनर से कुछ कमा सकें. मैंने गढ़चिरौली जानेका इरादा कर लिया. कुछ लोगों ने मुझे उन रास्तों पे होने वाले नक्सल वादी  हमलों के बारेमे आगाह किया. लेकिन मैंने ठान लिया था,तो एक जिप्सी  में निकल पडी. साथ एक बन्दूक धारी रक्षक था.
रास्तेमे हमें  जंगली भैंसों का एक झुण्ड दिखा.  ज़रा-सा रुक वहाँ की २/३ तस्वीरें खींच ली.बस उसी समय एक धमाका सुनाई दिया. हम रुके थे वहाँ से बस्ती ज़्यादा दूर नहीं थी...दिवाली करीब थी...कान पटाखों के आदि हो गए थे...धमाके की ओर गौर कियाही नहीं..

नीचे बने छोटे  -से भित्ती चित्र की वही तसवीर प्रेरणा थी. तसवीर में कोई रंग नहीं थे...बस पेड़ों के पतले पतले तने,और इत्तेफ़ाक़न देखा गया भैंसों का झुण्ड. जब उसे कपडे पे उतारने लगी तो मेरे हाथ कुछ रंग बिरंगी नेट के तुकडे लग गए. आसमाँ रंगीन हो उठा! खैर!

फिर से उस रास्ते पे चलते हैं..तसवीर खींच के हम जिप्सी में बैठे ही थे,की, उसमे लगे wireless सेट पे मेसेज आया....हमलोग तुरत लौट जाएँ..उसी रास्ते को आगे रोड mine से उडा दिया गया था. बाद में पता चला की, निशाना तो हमारी जिप्सी थी..तसवीर लेने में कुछ समय निकल गया और धमाका जिप्सी पहुँचने के पहले हो गया..कुछ दिनों बाद अलग रास्ता ,अलग वाहन और बिना बन्दूक धारी रक्षक के मैं उस बस्ती पे पहुँची ज़रूर. मेरा मक़सद भी पूरा हुआ..उसकी मुझे खुशी है....बाद में हम लोग तबादले पे वहाँ से निकल पड़े. वो काम आगे चलाया गया या नही, इस बातकी ख़बर मुझे मिल न सकी. घरमे, मेरे कमरे में लगी यह तसवीर, वैसे शायद कुछ ख़ास नही, लेकिन फिरभी उस घटना के कारण एक यादगार बन गयी.

इस घटना को मैंने बहुत काम लोगों से साझा किया..वजह, जिन २/४ बार इसका उल्लेख हुआ, मुझे बेवक़ूफ़ करार दिया गया!
'भारतीय नागरिक ' द्वारा पिछली रचना पे टिप्पणी के तौरपे, की गयी बिनती,की,इस बार मै कुछ जोश भरा लिखूँ, मैंने यह पोस्ट लिख दी...! इस घटना को कविता में लिखना मेरे बस की बात नही..! इसलिए क्षमा को क्षमा करें!

रविवार, 2 मई 2010

वक़्त की धारा

कब,कौन पूछता मरज़ी उसकी,
अग्नी से, वो क्या जलाना चाहे है,
जहाँ लगाई,दिल या दामन,जला गयी!

कुम्हार आँगन बरसी जलभरी बदरी,
थिरक,थिरक गीले मटके  तोड़ गयी..
सूरज से सूखी खेती तरस गयी !

कलियों का बचपन ,फूलों की  जवानी,
वक़्त की निर्मम धारा बहा गयी,
थकी, दराज़ उम्र को पीछे छोड़ गयी...