सोमवार, 27 सितंबर 2010

हाय ये मुई मैच!

अक्सर ही असमंजस  में पडी रहती हूँ...कभी बिजली की बरबादी पे लिखने का मन होता है तो कभी इंसान ने पहन रखे मुखौटों पे. कभी बागवानी रिझाती है तो कभी परिंदे.
कभी नितांत अकेलापन खलता है तो कभी बचपन का घर, बुला,बुला के रुला देता है.
कभी याद आते वो कुछ पलछिन जब मैंने बने पदार्थों पे घरवालों ने यों हाथ मारा था जैसे हाथी सोंड में खाद्य पदार्थ उठा लेता है....लेने वालेकी नज़र टीवी की  ओर ...क्रिकेट का मैच  चल रहा है..परदे से कैसे नज़र हटाई जाये? तो हाथ तश्तरी की तरफ जाता है...टटोलता है,और मूह से आवाज़ निकलती है...अरे प्लेट खाली है....और आने दोना!

मै कई किस्मों की ब्रेड तथा  केक, पेस्ट्रीज आदि  घरमे बना लेती हूँ...एक दिन भरुवा ब्रेड बनाने की सूझी...अक्सर अलग,अलग फिलिंग डाल के  बनाती हूँ...उस दिन पनीर कद्दूकस किया....उसमे मस्टर्ड सॉस, बारीक कटी प्याज, हरी मिर्च,हरा धनिया, थोडा मेयोनेज़, कली मिर्च  आदि,आदि मिलाया...ब्रेड  का आटा गूंध के फूलने के लिए (डबल होने के लिए) पहले ही रख दिया था...उसे छोटे चौकोनों  में बेलना शुरू कर दिया..एक चौकोन पे पनीर,सॉस आदि का मिश्रण रखती,दूसरे चौकोन से उसे ढँक के  किनारे चिपका देती . दस पंद्रह मिनटों में वो फूल जाता...एक के बाद एक गरमा गरम ट्रे बेक होके निकल रही थीं..
जब ब्रेड का आटा फूल रहा था, उतनी देर में दो तीन किस्म के केक बेक कर डाले. केक तथा ब्रेड में जो पंद्रह मिनटों का gap था, मैंने प्याज, पालक ,पनीर और हरी मिर्च के पकौड़े पेश कर दिए. बाहर बूंदाबांदी भी हो रही थी.

पकौड़ों वाली प्लेट उठा के मैंने वहाँ स्विस रोल के तुकडे,चंद चोकलेट  केक के तुकडे और कुछ प्लेन केक के तुकडे  रख दिए...निगाहें टीवी पे टिकाया हुआ एक हाथ हाथी की सोंड की माफिक आया और प्लेट में से एक टुकड़ा उठा अपने मूह में डाल दिया...
" ओह! ये क्या? मै समझा आलूका  पकौडा है...!"
मै:" तो इस के बाद मत ले...बेक की हुई भरुआ ब्रेड  बस  दो मिनिटों में तैयार हो जायेगी..."
वो: " अरे मेरा ये मतलब नही...इसे भी रहने दो...वो भी आने दो.."
प्लेट अपनी तोंद  पे रखी हुई थी और मेरे सुपुत्र बिना स्क्रीन पेसे नज़र हटाये बोल रहे थे...उसका हाथ प्लेट पे आना,वहाँ से जो हाथ लगे उसे उठाना और मूह में डालना...बिलकुल ऐसे लग रहा था जैसे हाथी अपनी सोंड बढ़ाके मूह में ठूंस रहा  हो!

साथ पतिदेव भी मैच देखने जमे हुए थे. आसपास हो रही बात चीत से उन्हें कोई सरोकार नही था. उनका भी दाहिना हाथ बढ़ा और प्लेट में से एक टुकड़ा उठाके मूह में ले गया...
पतिदेव:" अरे! ये तुमने ब्रेड में मीठा क्यों भर दिया? वैसे बहुत स्वाद है...लेकिन ड्रिंक के साथ तो..."
मै:" उफ़! आपने केक उठाके खाया है...अपने दाहिने हात को कुछ और दाहिने मोड़ो, जो चाहते हो वो मिल जायेगा.."
फिर एकबार बिना प्लेट की तरफ नज़र उठाये वो हाथ( या सोंड) उठा और...और प्लेट की किनार पे कुछ ज़्यादाही ज़ोर से टिका..प्लेट ने उछाल खाई और  गरमा गरम,( ऊपरसे बिलकुल परफेक्ट brown और कुरकुरे हुए) ब्रेड के भरुवा  चौकोरों  ने फर्श पे पटकी खाई!
पतिदेव:" उफ़! तुम्हारी भी कमाल है! तुम प्लेट भी ठीक से नही रख सकतीं ?"
अच्छा हुआ की एक और ट्रे भरके ब्रेड के चौकोर तैयार थे!
सत्यानाश हो इन मुई matches  का!

रविवार, 12 सितंबर 2010

एक सुबह और आयी..

कुछ किरने  परदे से झाँक गयीं,
कानों में आवाजें गूँज गयीं,
दिल से कुछ आहें निकलीं,
सड़क बोली,एक सुबह और आयी..

पलकों से सपने लेने आयी,
उजालों में गुरूर  से लूटने आयी,
खो गयी रौशनी सितारों की,
तेज़ धूप हमें होशमे लाई,

हाय! कैसी बेरहमी तेरी!
मरहम तो किया नही,
छुपे ज़ख्मों पे हँसने आयी,
उन्हें और कुरेदने आयी...

सोमवार, 6 सितंबर 2010

अरसा बीता ...

लम्हा,लम्हा जोड़ इक दिन बना,
दिन से दिन जुडा तो हफ्ता,
और फिर कभी एक माह बना,
माह जोड़,जोड़ साल बना..
समय ऐसेही बरसों बीता,
तब जाके उसे जीवन नाम दिया..
जब हमने  पीछे मुडके देखा,
कुछ ना रहा,कुछ ना दिखा..
किसे पुकारें ,कौन है अपना,
बस एक सूना-सा रास्ता दिखा...
मुझको किसने कब था थामा,
छोड़ के उसे तो अरसा बीता..
इन राहों से जो  गुज़रा,
वो राही कब वापस लौटा?

 

कुछ  कपडे  के  तुकडे ,कुछ  जल  रंग  और  कुछ  कढ़ाई .. इन्हीं के संयोजन से ये भित्ती चित्र बनाया है.