शनिवार, 26 नवंबर 2011

नज़रे इनायत नही...


पार्श्वभूमी  बनी  है , घरमे पड़े चंद रेशम के टुकड़ों से..किसी का लहंगा,तो किसी का कुर्ता..यहाँ  बने है जीवन साथी..हाथ से काता गया सूत..चंद, धागे, कुछ डोरियाँ और कढ़ाई..इसे देख एक रचना मनमे लहराई..

एक ही मौसम है,बरसों यहाँ पे,
आखरी बार झडे,पत्ते इस पेड़ के,
 बसंत आया नही उस पे,पलट के,
हिल हिल के करतीं हैं, डालें इशारे...
एक ही मौसम है,बरसों यहाँ पे..

बहारों की  नज़रे इनायत नही,
पंछीयों को इस पेड़ की ज़रुरत नही,
कोई राहगीर अब यहाँ रुकता नही,
के दरख़्त अब छाया देता नही...
बहारों की नज़रे इनायत नहीं..


रविवार, 13 नवंबर 2011

वो घर बुलाता है...

ये fusion वाली रचना ख़ास अरविन्द मिश्रा जी के अनुरोध पे!

जब ,जब पुरानी तसवीरें,

कुछ याँदें ताज़ा करती हैं ,

हँसते ,हँसते भी मेरी

आँखें भर आती हैं!



वो गाँव निगाहोंमे बसता है

फिर सबकुछ ओझल होता है,

घर बचपन का मुझे बुलाता है,

जिसका पिछला दरवाज़ा

खालिहानोमें खुलता था ,

हमेशा खुलाही रहता था!



वो पेड़ नीमका आँगन मे,

जिसपे झूला पड़ता था!

सपनोंमे शहज़ादी आती थी ,

माँ जो कहानी सुनाती थी!



वो घर जो अब "वो घर"नही,

अब भी ख्वाबोमे आता है

बिलकुल वैसाही दिखता है,

जैसा कि, वो अब नही!



लकड़ी का चूल्हाभी दिखता है,

दिलसे धुआँसा उठता है,

चूल्हा तो ठंडा पड़ गया

सीना धीरे धीरे सुलगता है!



बरसती बदरीको मै

बंद खिड्कीसे देखती हूँ

भीगनेसे बचती हूँ

"भिगो मत"कहेनेवाले

कोयीभी मेरे पास नही

तो भीगनेभी मज़ाभी नही...



जब दिन अँधेरे होते हैं

मै रौशन दान जलाती हूँ

अँधेरेसे कतराती हूँ

पास मेरे वो गोदी नही

जहाँ मै सिर छुपा लूँ

वो हाथभी पास नही

जो बालोंपे फिरता था

डरको दूर भगाता था...



खुशबू आती है अब भी,

जब पुराने कपड़ों मे पडी

सूखी मोलश्री मिल जाती

हर सूनीसी दोपहरमे

मेरी साँसों में भर जाती,

कितना याद दिला जाती ...



नन्ही लडकी सामने आती

जिसे आरज़ू थी बडे होनेके

जब दिन छोटे लगते थे,

जब परछाई लम्बी होती थी...





बातेँ पुरानी होकेभी,

लगती हैं कल ही की

जब होठोंपे मुस्कान खिलती है

जब आँखें रिमझिम झरती हैं

जो खो गया ,ढूँढे नही मिलेगा,

बात पतेकी मुझ ही से कहती हैं ....


छोट बच्चे के नज़रिए से ये भित्ती चित्र बनाया था. खादी सिल्क की पार्श्वभूमी पे पहले थोडा पेंट कर लिया और ऊपर से कढ़ाई की है.
कभी,कभी बचपन बहुत याद आता है...सपने आते हैं,जिन में मै स्वयं को एक बच्ची देखती हूँ...बचपन वाला घर दिखता है....बचपन के दोस्त और दादा दादी दिखते हैं...आँखें खुलने पे वो बेसाख्ता बहने लगती हैं...


बुधवार, 2 नवंबर 2011

दिलकी राहें.......


बहोत वक़्त बीत गया,
यहाँ किसीने दस्तक दिए,
दिलकी राहें सूनी पड़ीं हैं,
गलियारे अंधेरेमे हैं,
दरवाज़े हर सरायके
कबसे बंद हैं !!
राहें सूनी पडी हैं॥

पता नही चलता है
कब सूरज निकलता है,
कब रात गुज़रती है,
सुना है, सितारों भरी ,
होतीं हैं रातें भी
राहें सूनी पड़ीं..

चाँद भी घटता बढ़ता है,
शफ़्फ़ाक़ चाँदनी, रातों में,
कई आँगन निखारती है,
यहाँ दीपभी जला हो,
ऐसा महसूस होता नही....
दिलकी राहें सूनी पड़ीं...

उजाले उनकी यादोंके,
हुआ करते थे कभी,
अब तो सायाभी नही,
ज़माने गुज़रे, युग बीते,
इंतज़ार ख़त्म होगा नही...
दिलकी राहें सूनी पड़ीं....