शनिवार, 26 मई 2012

ना खुदाने सताया...




















कभी,कभी ज़िंदगी में ऐसे मोड़ आते हैं,जहाँ केवल सवाल ही सवाल होते हैं! हर तरफ चौराहे...जिन्हें अपना माना,जान से ज्यादा प्यार किया...पता चलता है,वो तो परायों से बद्दतर निकले! किस पे विश्वास करें? आखिर ज़िंदगी का मकसद क्या है....बस चलते रहना?महीनों गुज़र जाते हैं,हँसी का मुखौटा ओढ़े और अन्दर ही अन्दर गम पिए! इम्तिहान की घड़ियाँ बिताये नहीं बीततीं! शायद ऐसे किसी दौर से गुज़रते हुए ये रचना लिख दी है!

ना खुदाने सताया
ना मौतने रुलाया
रुलाया तो ज़िन्दगीने
मारा भी उसीने
ना शिकवा खुदासे
ना गिला मौतसे
थोडासा रहम  माँगा
तो वो जिन्दगीसे
वही ज़िद करती है,
जीनेपे अमादाभी
वही करती है...
मौत तो राहत है,
वो पलके चूमके
गहरी  नींद सुलाती है
ये तो ज़िंदगी है,
जो नींदे चुराती है
पर शिकायतसे भी
डरती हूँ उसकी,
गर कहीँ सुनले,
पलटके एक ऐसा
तमाचा जड़ दे
ना जीनेके काबिल रखे
ना मरनेकी इजाज़त दे....

शनिवार, 19 मई 2012

नज़रे इनायत नही...



पार्श्वभूमी  बनी  है , घरमे पड़े चंद रेशम के टुकड़ों से..किसी का लहंगा,तो किसी का कुर्ता..यहाँ  बने है जीवन साथी..हाथ से काता गया सूत..चंद, धागे, कुछ डोरियाँ और कढ़ाई..इसे देख एक रचना मनमे लहराई..

एक ही मौसम है,बरसों यहाँ पे,
आखरी बार झडे,पत्ते इस पेड़ के,
 बसंत आया नही उस पे,पलट के,
हिल हिल के करतीं हैं, डालें इशारे...
एक ही मौसम है,बरसों यहाँ पे..

बहारों की  नज़रे इनायत नही,
पंछीयों को इस पेड़ की ज़रुरत नही,
कोई राहगीर अब यहाँ रुकता नही,
के दरख़्त अब छाया देता नही...
बहारों की नज़रे इनायत नहीं..